चौक के सौदागर परिवार में जन्मेंं और आजादी की लड़ाई को धार देने वाले अब्दुल मजीद राइन अपने समर्थकों जिममें हिन्दुतान को आजाद कराने का जज्बा लिए कई महिलाएं भी थीं। 13 अगस्त, 1943 को जब जैसे ही जुलूस घंटाघर से जानसेनगंज चौराहा की ओर बढ़ा अंग्रेजों ने गोलियां चलानी शुरू कर दी। चंद मिनटों में घंटाघर के पास हर तरफ आजादी के दीवाने शहीदों का शव था और पूरा घंटाघर खून से लाल हो गया था।
शहीद अब्दुल मजीद राईन की शहादत दिवस के पूर्व नम आंखों से शहीद के भतीजे कादिर भाई ने अपने शहीद चाचा के साथ मां भारती के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले सभी अमर बलदानियों को श्रद्धा सुमन अर्पित किया। उन्होंने बताया कि उनके चाचा अब्दुल मरीज तिरंगा लिए आगे थे और पूरे जुलूस को अगुवाई कर रहे थे। अंग्रेजों ने उनकी शरीर को छलनी कर दिया था।
महात्मा गाँधी के आह्वान पर अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन प्रयागराज में घंटाघर चौराहा से जानसेनगंज की ओर आ रहे नौजवानों ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा को लहराते हुए, अग्रेजों भारत छोड़ो, इंकलाब जिंदाबाद नारा बुलंद करते हुए शहीद अब्दुल मजीद राईन के नेतृत्व में घंटाघर चौराहे से जानसेनगंज होते हुए आनंद भवन की ओर बढ़ रहे थे। तभी अंग्रेजी हुकूमत के जालिम हुक्मरानों ने शहीद अब्दुल मजीद राईन, शहीद मुरारी मोहन भट्टाचार्य एवं भगवती प्रसाद के सीने को छलनी कर दिया और भारत मां के वीर सपूतों को हमेशा के लिए सुला दिया।
शहीद अब्दुल राईन के भतीजे मो. कादिर (कादिर भाई) का कहना था कि पहले शहर के नाम पर घंटाघर और आसपास ही लोग रहा करते थे। यहां गांव के व्यापारी आकर व्यापार करते थे। उनका परिवार यहां कारोबारी परिवारों में एक था। आजादी के समय यहां से ही सारी गतिविधि हुआ करती थी। आजादी का केन्द्र बिन्दु चौक था। जिस पर अंग्रेज शासकों की निगाह रहा करती थी। उनका कहना था कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी उनके शहादत दिवस पर कई कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे। इसकी तैयारी पूरी कर ली गयी है।